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मातैय - माते त्वानू लखा, करोड़ा प्रणाम

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मातैय - माते त्वानू लखा, करोड़ा प्रणाम परमपूजनीय दादी माँ को हम सब के बीच से गए हुए दो वर्ष हो गया.. वक्त तेज़ी से भागता चला जाता है किन्तु चिर-स्मृतियाँ छोड़ता चला जाता है. यह कहना कठिन है की समय के साथ सबकुछ भुलाया जाता है. क्योंकि सीख जीवन के हर मोड़ पर एक राह , हिम्मत बनकर कड़ी दिखाई देती है.  अबके अत्यधिक प्रगतिवादी माहोल में भी हमारे उन अशिक्षीत बुजुर्गों के तजुर्बे एक ढाल की तरह सामने आते हैं. फिर हम कैसे कह सकते हैं की की समय सब कुछ भुला देता है.                                         http://aakrosh-sanwad.blogspot.in/search?updated-min=2015-01-01T00:00:00-08:00&updated-max=2016-01-01T00:00:00-08:00&max-results=13 पूज्यनीय दादी जी को परिवार के सभी सदस्य माताजी,  मातैय यां माते  कहते थे .  मातैय शब्द पंजाबी का अपभ्रंश है , और भी कई शब्दों को तोड़ मरोड़ कर बोला जाता है. खैर  मातैय हमारे बीच समाये हुए हैं, हम गौरवान्वित हैं ऐसे महान व्यक्तित्व के बच्चे हो कर..  आप हर समय हमारे स्मरण में रहेंगे. किन्तु आज आपके पुण्यस्मरण पर बस इतना ही  मातैय - माते त्वानू

बस मीठा मीठा बोलो

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                                            शीर्षक से याद आया की टीना मुनीम और देव आनंद अभिनीत फिल्म ‘मनपसंद’ सन 1980 में प्रदर्शित हुई थी। इसमें मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाया, राजेश रोशन के संगीत से सजा एक गीत था ... लोगो का दिल अगर हा जितना तुमको है तो बस मीठा मीठा बोलो लोगो का दिल अगर हा जितना तुमको है तो बस मीठा मीठा बोलो चले है जैसे कहीं शीशे पे आरी कानो को लगे है आवाज़ तुम्हारी चले है जैसे कहीं शीशे पे आरी कानो को लगे है आवाज़ तुम्हारी कहना है कुछ अगर तो बोलो में मिशरी घोलो बस मीठा मीठा बोलो साज़ छुपा है जब सीना-ए-दिल में गीत तुम्हारे है तो फिर मुश्किल में साज़ छुपा है जब ई-ए-दिल में गीत तुम्हारे है तो फिर मुश्किल में सब से तुम्हे अगर हा आगे बढ़ना है तो बस मीठा मीठा बोलो सौ मे से एक है बात पते की दिन हो सुरीला तो रात मज़े की सौ मे से एक है बात पते की दिन हो सुरीला तो रात मज़े की अपना यह माल अगर हाँ बेचना तुम को है तो बस मीठा मीठा बोलो लोगों का दिल अगर हा जितना तुमको है तो बस मीठा मीठा बोलो.. गीत भले ही वर्ष १९८० में लिखा गय

शिरपुर का विख्यात सितारा स्मिता पाटिल, अदाकारी के लिए आज भी मिसाल

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महाराष्ट्र के धुलिया जिले की शिरपुर तहसील में आगरा मुंबई महामार्ग पर स्थित दहिवद गाँव से गुजरते समय महान अदाकारा स्मिता पाटिल का स्मरण हो आता है. स्मिता पाटिल पब्लिक स्कूल वा शिरपुर सहकारी सूत गिरनी के सामने गुजरते हुए किसी  ना किसी से पता चल जाता है की स्मिता पाटिल का यहाँ से कोई गहरा सम्बन्ध है. हालांकि स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर , 1956 को पुणे में हुआ था , किन्तु उनके पिता शिवाजी  गिरधर पाटिल की शिरपुर राजनीतिक कर्म भूमि , पैत्रिक भूमि रही है. स्मिता पाटिल के पिता शिवाजीराव गिरधर पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री, राज्यसभा सदस्य  और मां विद्या ताई पाटिल सामाजिक कार्यकर्ता थीं. स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में शिवाजीराव पाटिल व उनके भाई उत्तम नाना पाटिल का योगदान बताया जाता है. अंग्रेजों के खज़ाना लुटने की चिमठाना लूटकांड की घटना में इस परिवार का योगदान माना जाता है. खैर राजनीतिक पृष्ठ भूमि के कारण स्मिता पाटिल की योग्यता, व्यक्तित्व को हल्का नहीं माना जा सकता. उनकी अपनी एक विख्यात छवि रही है.  अपने अभिनय वा अदाकारी से स्मिता पाटिल ने मात्र दस वर्ष के क

स्टेज डेयरिंग

यह है हमारी बिटिया रानी कनक ! मेरी पत्नी मोनिका चड्ढा ने कल बताया की रविवार को स्कूल के ऑडिटोरियम में लगभग पांच सौ बच्चों को फिल्म दिखानी थी . अचानक लेपटोप में कोई तकनिकी खराबी आ गई, तो कोई इंग्लिश गाना लगा दिया गया. कनक इतनी भीड़ में से उठ कर स्टेज पर गई और मुक्त स्वरुप में डांस करने लग गई. उसकी इस स्टेज डेयरिंग को देख कर सभी बच्चों ने चियर्प करना, तालियाँ बजाना प्रारंभ कर दिया. बाद में दुसरे बच्चे भी कनक को देख कर स्टेज पर आ गए. ग्रेट....                                                      कनक का स्टेज परफोर्मेंस     

जन्मदिन की अशेष ,अनंत शुभकामनायें

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कहीं पर पढ़ा था की.. पिता की मौजदगी सूरज की तरह होती है , सूरज गरम जरुर होता है , अगर न हो तो अँधेरा छा जाता है ।   .. जिसने भी कहा है , सही ही कहा है.. यह अहसास इंसान को तब होता है जब वह अपने अहम् से बाहर निकल कर पिता की नर्म मुलायम गर्मी को महसूस करता है.. मैं हमेशा से अपने पिता के बारे में अपने भाई-बहनो , मित्रों , अपनों को कहा करता हूँ की यह क्या कम है की हमें आदरणीय- पूज्यनीय पापाजी ने इतना इंसान बनाया की हम सब समाज में अपना स्थान कायम कर सके.. शोहरत दौलत तो आती जाती रहेगी.. किन्तु कभी हममें घमंड-गुमान न आये यह आदर्श उन्ही ने दिया.. आदरणीय पापाजी का जन्मदिन शायद पहली बार इस तरह से मनाया हो.. पापाजी आप स्वस्थ रहें , दीर्घायु हो , हमेशा प्रसन्न रहें.. हम नादान बच्चों पर अपनी प्रेरणात्मक सीख के साथ आशीष बनाये रखें... इन खुशियों को बिखेरने के लिए मेरे छोटे विपुल व बहु सोनम का शुक्रिया.... आपका अपना समूचा परिवार

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए..

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उजाले   अपनी   यादों   के   हमारे   साथ   रहने   दो , न   जाने   किस   गली   में   ज़िंदगी   की   शाम   हो   जाए.. बशीर बद्र का यह शेर याद दिलाता है वर्ष १९७५ में आई सुचित्रा सेन की फिल्म आंधी की   ।   सुचित्रा सेन की राजनीती   विषय पर केन्द्रित यह आखरी फिल्म थी   ।   यह फिल्म   निर्माण से लेकर ही विवादों यां सुर्ख़ियों में रही. आमतौर पर फिल्म आंधी की पटकथा को प्रख्यात लेखक कमलेश्वर की करती काली आंधी पर आधारित मन गया   । किन्तु हकीकत यह है   की गुलज़ार साहब ने इसकी पटकथा को जन्म दिया   ।   इतना ही नहीं इस फिल्म के चर्चित वा आजतक गुनगुनाये जा रहे   गीत भी गुलज़ार ने ही लिखे थे   ।   आंधी फिल्म को आज तक  इंदिरा गाँधी के व्यक्तित्व से जोड़ कर देखा जाता रहा है ,  हालांकि गुलज़ार इसका हमेशा से खंडन करते रहे हैं   ।   इंदिरा गाँधी के पहनावे से   मिलता जुलता नायिका सुचित्रा सेन   का पहनावा व फिल्म के दक्षिण में फिल्म के पोस्टरों पर लिखा सन्देश हमेशा इसे विवादस्पद बनाता रहा है   ।   दक्षिण   में पोस्टरों पर लिखा गया थ की अपनी प्रधानमंत्री को देखें स्क्रीन पर ... तत्कालीन प्रधान

दुर्घटना से लौट कर

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अभी अभी तो मौत से साक्षात्कार करके लौटा हूँ रुसवा हो गई आग़ोश में न पाकर कोशिश तो थी गले लगा लेती वो फिर सहसा उसे ही लगा होगा अभी तो बहुत कुछ बनाना है इन हांथों से बेचारी लाचार, क्या ज़बाब दे उनको जो राह तक रहे थे मेरे जाने की उसे संघर्ष करना पड़ा अनगिनित सवालों से जो दुआएं कर रहे मेरी लंबी उम्र की इसी उहापोह में ही शायद वार करना पड़ा होगा उसे मज़बूर थी मुझे समेटने को वहीं दुविधा में थी ज़िंदा छोड़ने की मैं तो सिर्फ इतना जानता कि, मारने वाले से तारने वाला बड़ा कोई तो था जो वज्र का आघात झेल गया मुझ पर आई विपदा में खुद ही खेल गया कुछ दर्द छोड़ गया अहसास दिलाने को बची खुची ज़िन्दगी रिश्तों में निभाने को दुआ व स्नेह बहुत सारा था अपनों का बाल भी बांका न हो सका सपनो का

जन्मदिन पर कुछ पंक्तियाँ

जीवन की आपाधापी कोहराम सा मचा हृदय में छिन-छिन पल-पल बढ़ते पथ पर राहगीर बने जीवन के, गिरना चलना, उठकर रहना हर पल जीवन का है गहना एक वर्ष का सफ़र ख़त्म हो फिर से एक सीढ़ी है चढ़ना, नही वक्त है सोचें फिर हम क्या खोया क्या पाया अब तक चलते रहने की धुन में जीवन सुंदर पाया मैने, नही शिकायत इससे मुझको जो जिया वह अनमोल हमेशा संघर्षों की परिपाटी पर निर्माण हो रही सार्थक दिशा, फैले इस समाज़ को मैने अभी ओर कुछ देना है लेकिन दूषित होते पल में जीवन संभाल कर जीना है, आज बीत रहा एक पड़ाव अभी महत्वाकांक्षा बाकी है इस समाज़ ने दिया बहुत कुछ इसका क़र्ज़ भी बाकी है, शिव अब जागो,कंठ सुखता गरल फैला है इस जग में स्वार्थ, लोभ, छल, मक्कारी फैली हुई है पग-पग में, नीलकंठ फिर बनने तुमको इस धरती पर आना होगा मेरा जीवन सरल बनाने विलक्षण नेतृत्व बनाना होगा, इतनी इच्छा कर दो पूरी मैं आदर्श बनूँ ओरों का इसके लिए बने यह जीवन कर्तव्यों से कर्तव्यों का.. प्रतिवर्ष की तरह जन्मदिन पर कुछ पंक्तियाँ परिजनो, सभी मित्रो, गुरुजनो, आदरणीय, स्नेहियों के सादर आभार सहित

बेटी बचाओ, बेटी पढाओ अभियान

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८ मार्च महिला दिवस पर विशेष            बेटी बचाओ, बेटी पढाओ अभियान के अखिल भारतीय संयोजक डा.राजेंद्र फडके से इस महत्वपूर्ण अभियान पर देश में हो रहे कार्यो व उसके परिणामो पर चर्चा की  विशाल चड्ढा ने                                                                             प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पदभार संभालते ही देश में कन्या जन्मदर के गिरते स्वरूप पर चिंता व्यक्त करते हुए बेटियों के लिए एक बडी योजना प्रारंभ करने का निर्णय लिया। उन्होंने हरियाणा के पानीपत से २२ जनवरी २०१५ को बेटी बचाओ, बेटी पढाओ अभियान की शुरूआत करने का निर्णय लिया। जिसे बाद में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शहा ने बैंगलूर की केंद्रिय बैठक में प्रधानमंत्री मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट के रूप में नमामी गंगे व स्वच्छता अभियान के साथ चलाए जाने की घोषणा की। प्राथमिक दौर में देश के कन्या जन्मदर वाले १०० जिलो को चुना गया। देश के सभी ३६ राज्यो में इस कार्य का शुभारंभ करते हुए बैठके व आकडो के संकलन का कार्य प्रारंभ किया। महाराष्ट्र में इस अभियान के १० जिले चुने गए। उत्तर भारत की तर्ज पर पुरे देश में अभियान के अंत

आओ बेलन टाइप डे मनाएं

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                                 आओ बेलन टाइप डे मनाएं                सुबह सुबह सोशल मीडिया पर किसी अखबार की कतरन खुली।  पता चला की कुछ दम्पत्तियों के जीवन के सार को खुशहाली में परोसा गया था। सभी अपने अपने अनुभव में जीवन साथी को सर्वश्रेष्ठ बता रहे थे।  होना भी ऐसा ही चाहिए। अच्छा लगा जान कर वो वेलेंटाइन डे पर कुछ बेलन टाइप स्मृतियाँ प्रस्तुत कर रहे थे। बहुत पहले फारुख शेख का एक धारावाहिक आता था जीना इसी का नाम है.. कुछ उसी से प्रेरणा लेता हुआ यह प्रकाशित अंदाज़ था। आज कल अखबार अपने व्यवसाइक फायदे के लिए कोई भी नई  संकल्पना को जन्म देते हैं। मज़बूरी है साहब , बड़े बड़े ताम-झाम को कैसे चलाएंगे। खैर याद आया इसी तरीके की  बेलन टाइप श्रृंखला तो घर घर में होती होगी।  आज कुछ विशेष निगरानी में पति वर्ग, पुरुष वर्ग के लिए मध्यम संगीत में गाना चल रहा होगा.. बाबूजी ज़रा धीरे चलना, प्यार में ज़रा... पर क्या करें कमबख्त वेलेंटाइन डे है।  गुलाबी उपहारों से सजी दुकाने न जाने क्यों बेलन टाइप को भूलने के लिए मज़बूर कर देती  हैं। कुछ दिन पहले एक समाचार पढ़ा था की शहर के गांधी पार्क में दोपहर को एक युवक अ