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फ़रवरी, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आओ बेलन टाइप डे मनाएं

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                                 आओ बेलन टाइप डे मनाएं                सुबह सुबह सोशल मीडिया पर किसी अखबार की कतरन खुली।  पता चला की कुछ दम्पत्तियों के जीवन के सार को खुशहाली में परोसा गया था। सभी अपने अपने अनुभव में जीवन साथी को सर्वश्रेष्ठ बता रहे थे।  होना भी ऐसा ही चाहिए। अच्छा लगा जान कर वो वेलेंटाइन डे पर कुछ बेलन टाइप स्मृतियाँ प्रस्तुत कर रहे थे। बहुत पहले फारुख शेख का एक धारावाहिक आता था जीना इसी का नाम है.. कुछ उसी से प्रेरणा लेता हुआ यह प्रकाशित अंदाज़ था। आज कल अखबार अपने व्यवसाइक फायदे के लिए कोई भी नई  संकल्पना को जन्म देते हैं। मज़बूरी है साहब , बड़े बड़े ताम-झाम को कैसे चलाएंगे। खैर याद आया इसी तरीके की  बेलन टाइप श्रृंखला तो घर घर में होती होगी।  आज कुछ विशेष निगरानी में पति वर्ग, पुरुष वर्ग के लिए मध्यम संगीत में गाना चल रहा होगा.. बाबूजी ज़रा धीरे चलना, प्यार में ज़रा... पर क्या करें कमबख्त वेलेंटाइन डे है।  गुलाबी उपहारों से सजी दुकाने न जाने क्यों बेलन टाइप को भूलने के लिए मज़बूर कर देती  हैं। कुछ दिन पहले एक समाचार पढ़ा था की शहर के गांधी पार्क में दोपहर को एक युवक अ

जुगाड़ तंत्र बनाम भारतीयता

                           जुगाड़ तंत्र  बनाम भारतीयता कहा जाता है की जुगाड़तंत्र में भारतीयता का कोई सानी  नहीं है।  अमरीकी आज भी इस जुगाड़तंत्र के कायल हैं ।  तकनिकी कितनी भी प्रगति कर ले लेकिन हमारे जुगाड़ तंत्र  के आगे सब बेकार ।  अनिल अंबानी ने एक बार कहा था कि रिलायंस ने आविष्कारों मतलब  इन्वेन्षन की बदौलत नहीं बल्कि नित नई खोजों इनोवेशन की बदौलत ही सफलता हासिल की है। भारत में इस इनोवेशन का अर्थ खालिस जुगाड़ ही है । भुआ जी हाल  ही में अपने पुत्र से मिलने अमेरिका गई हैं।  मेरी बात हो रही थी, उन्होंने बताया की चारों और दैनिक जीवन में वहां तकनीक का बोलबाला है। कमरों में जाते ही खुद लाइटें शुरू हो जाती हैं और भी न जाने क्या-क्या। अपने देश में भी यह सब आ गया है।  गाँव कूंचों तक नए ब्रांड की गाड़ियां व कोकाकोला पहुँच चुका  है।  यह अलग बात है की देश के कई  इलाकों में अब तक बिज़ली, पानी, सड़क जैसी मुलभुत सुविधाएं नहीं पहुंचीं। कितनी भी उन्नति हो जाए किन्तु पाश्चात्य देशों में रह रहे भारतीय  आज भी अपने पूर्वजों के देसी नुस्खों को आज़माने से नहीं चूकते।  अमरीका में भी सुबह पेट साफ़ करने के लि

मीडिया का ग्लैमर है भाई

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                                    मीडिया का ग्लैमर है भाई                  मीडिया का ग्लैमर जहाँ बाहरी लोगों को होता है वहीँ मीडिया में काम करने वाले भी इससे अछूते नहीं रहते। जीवन भर के खास दोस्त भी अपनी सारी दोस्ती एक किनारे रख कर ओवरटेक का मूड बना लेते हैं। बोहरी समाज के धर्मगुरु एक बार ट्रेन से गुजर रहे थे, उनके अनुयायी दर्शनों के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचे । मैं उस नज़ारे को याद कर रहा हूँ की अपने भगवान् की एक झलक पा कर सारा समाज महिला पुरुष कैसे रोते  बिलखते आशीष पा रहे थे। अनुशासन व समर्पण का एक यादगार भाव था वो। खैर बात मीडिया की चल रही थी ग्लैमर को लेकर । जिसमें अनुशासन , समर्पण का न होना कोई नई बात नहीं है । आने वाले पता नहीं किस चाह के साथ आ रहे हैं, जाने वाले पता नहीं किस राह से परेशान जा रहे हैं, जो हैं उनको खुद की खबर नहीं । लेकिन ग्लैमर बरक़रार है । तेरे आने की जब खबर महके, तेरी खुश्बू से सारा घर महके ,शाम महके तेरे तसव्वुर से, शाम के बाद फिर सहर महके ,रात भर सोचता रहा तुझको, ज़हन-ओ-दिल मेरे रात भर महके ।। जगजीत सिंह से याद आया की निदा फ़ाज़ली भी चले गए  । धीरे

लकीरें पैरों में हैं

मेरी तकदीर की लकीरें पैरों में हैं चलते चलते अब घिसने लगी, तुम नाहक ही हथेलिया देखते हो यहाँ की धुंधली लकीरें तो मिट चुकीं, इन लकीरों का ही गर सोचा होता ना पाता मुकम्मल जहाँ में खड़ा, चल डालेंगे डेरा कहीं और अभी हम बाशिंदे है, रिफ्यूजी भी..