रघुपति सहाय उर्फ़ प्रख्यात शायर फिराक गोरखपुरी

प्रख्यात शायर फिराक गोरखपुरी
 
 
 
रघुपति सहाय का जन्म: २८ अगस्त १८९६ को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उर्दू भाषा के प्रसिद्ध रचनाकार माने जाने वाले रघुपति सहाय कला स्नातक में पूरे उत्तर प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में चुने गये। किन्तु उन्होंने देश के क्रन्तिकारी हालातों को देखते हुए नोकरी छोड़ कर स्वराज आन्दोलन की ओर रुख किया । लगभग डेढ़ वर्ष की जेल की सजा काटने के बाद वे नेहरु जी के संपर्क में आये और अखिल भारतीय कांग्रेस के कार्यालय में अवर सचिव की जगह पर बैठा दिए गए । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे रघुपति सहाय को उनकी उर्दू काव्यकृति ‘गुले नग्‍़मा’ के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया । रघुपति सहाय की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूहे-कायनात, नग्म-ए-साज, गजालिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों का बड़ा संग्रह मोजूद है । साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६८ में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया । फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई । कायस्थ परिवार में जन्मे रघुपति सहाय ने अपने विवाह को अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते हुए ७५ वर्ष की अवस्था में लिखा की ... मेरी जिन्दादिली वह चादर है ,वह परदा है,जिसे मैं अपने दारुण जीवन पर डाले रहता हूँ। ब्याह को छप्पन बरस हो चुके हैं और इस लम्बे अरसे में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि मैं दाँत पीस-पीसकर न रह गया हूँ। मेरे सुख ही नहीं,मेरे दुख भी मेरे ब्याह ने मुझसे छीन लिये। पिता-माता,भाइयों-बहनों,दोस्तों- किसी की मौत पर मैं रो न सका। ३ मार्च १९८३ को आखरी सांस लेने वाले रघुपति सहाय कोई और नहीं प्रख्यात शायर फिराक गोरखपुरी ही हैं..जय हो..

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