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चालीसगांव में पड़ी विश्व कला की धरोहर - " केकी मूस "

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भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु बाबूजी से मिलने दो बार चालीसगांव आये थे.  बताते है कि 48 साल तक केकी मुस उर्फ़ बाबूजी ने चालीसगांव से बाहर सिर्फ दो बार कदम रखा.  एक बार मां की मृत्यु पर उन्हें औरंगाबाद जाना पड़ा. दूसरी बार जब वे अपने बंगले से निकलकर चालीसगांव रेलवे स्टेशन पर विनोबा भावे की तस्वीर लेने आये. मां ने पहचानी प्रतिभा -   चालीसगांव में केकी मूस के पिता सोडा वाटर की फैक्टरी के साथ-साथ शराब की दुकान चलाते थे. बेटा कला की पढ़ाई करने विदेश जाना चाहता था. पर मां-बाप इकलौते बेटे को इतनी दूर भेजने के लिए तैयार नहीं थे. वर्ष 1934-35 में पिता की मौत के बाद मां पिरोजाबाई ने फैक्टरी की जिम्मेदारी अपने कंधे लेते हुए बेटे को इंग्लैण्ड जाने की इजाजत दे दी.  चालीसगांव में अब केकी मूस उर्फ़ बाबूजी के नाम पर उनके कुछ साधकों द्वारा केकी मूस आर्ट ट्रस्ट चलाया जा रहा है.  ट्रस्ट के सचिव  कमलाकर सामंत ने बताया कि बाबू जी ने 300  से अधिक  राष्ट्रीय,  अंतर्राष्ट्रीय  पुरस्कार जीते थे . लेकिन  उनके जीते जी यह बात किसी को नहीं पता थी. बाबूजी की इतनी सादगी थी कि  अपने ना

हे भगवान् आज फिर रावण जला दिया जायेगा !!

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देश के विभिन्न इलाकों में गुरूवार 18 अक्टूबर को विजयादशमी पर्व मनाया गया, जबकि उत्तर भारत सहित कई हिस्सों में आज 19 अक्टूबर को विजयादशमी पर्व मनाया जा रहा है.  हे भगवान् आज फिर रावण जला दिया जायेगा !! बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतिक के रूप में. बिना किसी आत्म्परिवर्तन के हम स्वयं ही आंकलन कर लेंगे की हम खुद बहुत अच्छे हैं और समाज की सारी अच्छाईयां हमारे घर में पानी भरती हैं. रावण सदियों से बुरा था, बुरा ही रहेगा. हम सभी कुरीतियों से परे साफ़ सुलझे आदर्शवादी इंसान हैं, हमें पुरा अधिकार है रावण पर रौष प्रकट करने का . हमें अधिकार है रावण को जलाने का.. खैर होना भी चाहिए.. दीपक तले अँधेरे को कौन देखता है. तम्बाकू हानिकारक है भला इस चेतावनी को कौन पढता है. अब सवाल यह उठता है की रावण में ऐसा क्या था जो आज हमारे समाज में मोजूद नहीं है, फिर अकेला उसे ही जलाने की जिद्द क्यों ?? आधा गिलास भरा को सकारात्मकता व आधा गिलास खाली को नकारात्मक के चश्मे से देख कर भी हम रावण की नकारात्मकता देखना ही पसंद करेंगे. विधान ही ऐसा बना दिया गया है .  बरहाल रावण जलाने की पुरातन परम्पराओं का नि

लौट आये बप्पा अपने घर..

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वैसे तो महाराष्ट्र में आने के बाद से हमारे परिवार में लाडले गणपति बप्पा की स्थापना का चलन प्रारंभ हुआ. किन्तु छोटे भाई विपुल के छुटपन का स्थान जब मेरी बड़ी बिटिया वंश ने लिया तो गणपति जी की स्थापना अगली पीढ़ी में चली गई. बाद में समय के साथ वंश ने बुद्धि के देवता गजानन को सुन्दर स्वरुप में घर पर ही आकार देना प्रारंभ किया. वंश पर गणनायक की असीम कृपा रही. पर्यावरण पूरक गणपति जी की मूर्ति निर्माण का हुनर वंश ने दूसरों को भी दिया. कुछ कार्यशाला तो कुछ गली-मोहल्ले के लोगों को, दोस्तों के साथ मिलकर सिखाया.     दो वर्ष दिल्ली में बिताने के बाद वापिस घर लौट कर गणेशोत्सव मनाने का सौभाग्य मिला. विगत वर्ष दिल्ली में भी गणेश जी की स्थापना की थी. वह अनुभव भी अलग था. हमारे अपार्टमेंट में कोई भी महाराष्ट्रियन न होने के कारण पड़ोसियों को वंश द्वारा बने मूर्ति देखने की उत्सुकता थी. इसका परिणाम यह रहा कि दिल्ली में भी आनंद के साथ मनाये गए गणेशोत्सव पर्व के बाद हमारी घर मालकिन ने दुर्गा पूजा के लिए बिटिया वंश से एक आकर्षक दुर्गा जी की मूर्ति बनवा कर स्थापित की.  खैर, कुछ भी कहें लेकिन  गणेशोत्

स्कूल का पहला दिन

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स्कूल का पहला दिन उत्साह व कल्पनाओं के साथ आँखों में लिए हज़ार सप्तरंगी सपने नन्हे अठखेलियां करते हाँथ, माता पिता के साथ स्कूल चले हम के संगीत में वहीँ कुछ उदास से चेहरे नम आँखों से देखते अपनो को चिड़ियों के कलरव सा शोर कोई हँसता कोई होता भावविभोर प्रयास एक अध्यापक का सपने दिखा दिखा कर हंसते खेलते चेहरे में उदास को भी मिलाकर वहीँ मायूस से माँ बाप चारदीवारी के बाहर हिला रहे हाँथ ,कर रहे  मुस्कुराने का प्रयास रंग बिरंगे गुब्बारों को दिखा कर जता रहे जल्द लौटने का विश्वास स्कूल का पहला दिन रस्सी पर चलने जैसी कसरत मुझे अब भी याद आता है स्कूल ख़त्म होते ही मिल्खा सिंह की तरह  भाग कर दौड़ना सबसे पहले चारदीवारी से निकल अपनों में सिमट जाना बड़ा अच्छा था वो सबक न भूला हूँ न भूलूंगा कभी उस पहले दिन के उत्साह ने मुझे इंसान बना दिया।। 👍

हम बाशिंदे है, रिफ्यूजी भी..

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मेरी तकदीर की लकीरें पैरों में हैं चलते चलते अब घिसने लगी तुम नाहक ही हथेलिया देखते हो यहाँ की धुंधली लकीरें तो मिट चुकीं इन लकीरों का ही गर सोचा होता ना पाता मुकम्मल जहाँ में खड़ा चल डालेंगे डेरा कहीं और अभी हम बाशिंदे है , रिफ्यूजी भी..          - ( पुरानी कलम से ) 

यह हाँथ नहीं उठते !!

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                     लिखे थे कुछ पन्ने                      फुर्सत से , जुनून में                         बारिश न आई                       किश्ती न बन पाई                   ठिठुरते बीत गया जाडा                   तापने के लिए न मिले                      वो कागज़ के पुर्जे                     गर्म हवा की आंधी                      है अब चल पड़ी                     समेटने को उड़ते,                     वो लिखे हुए कागज़                   अब हाँथ नहीं उठते                    यह हाँथ नहीं उठते !!                                  21 मई 2018