उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए..





उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
 जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए..

बशीर बद्र का यह शेर याद दिलाता है वर्ष १९७५ में आई सुचित्रा सेन की फिल्म आंधी की  सुचित्रा सेन की राजनीती विषय पर केन्द्रित यह आखरी फिल्म थी  यह फिल्म निर्माण से लेकर ही विवादों यां सुर्ख़ियों में रही. आमतौर पर फिल्म आंधी की पटकथा को प्रख्यात लेखक कमलेश्वर की करती काली आंधी पर आधारित मन गया किन्तु हकीकत यह है की गुलज़ार साहब ने इसकी पटकथा को जन्म दिया  इतना ही नहीं इस फिल्म के चर्चित वा आजतक गुनगुनाये जा रहे गीत भी गुलज़ार ने ही लिखे थे  आंधी फिल्म को आज तक  इंदिरा गाँधी के व्यक्तित्व से जोड़ कर देखा जाता रहा हैहालांकि गुलज़ार इसका हमेशा से खंडन करते रहे हैं  इंदिरा गाँधी के पहनावे से मिलता जुलता नायिका सुचित्रा सेन का पहनावा व फिल्म के दक्षिण में फिल्म के पोस्टरों पर लिखा सन्देश हमेशा इसे विवादस्पद बनाता रहा है  दक्षिण में पोस्टरों पर लिखा गया थ की अपनी प्रधानमंत्री को देखें स्क्रीन पर ... तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निजी स्टाफ द्वारा हरी झंडी देने के बाड ही फिल्म का प्रसारण हो सका था अभी फिल्म लगभग 20 हफ्ते ही चली थी की गुजरात विधानसभा चुनाव में विपक्ष ने इस फिल्म को सीधा इंदिरा गाँधी से जोड़ कर राजनेतिक लाभ लेना शुरू कर दिया.. खैर बात शुरू हुई थी जिंदगी की शाम से.. तो स्वाभाविक है की फिल्म के गुलज़ार साहब द्वारा लिखे गीतों को कैसे नज़रअंदाज किया जा सकता है  इन गीतों में राहुल दा ने जान फूंक कर इन्हें अज़र अमर बना दिया…  तेरे बिना जिंदगी से  कोई शिकवा तो  नहींशिकवा नहीं...जी में आता हैतेरे दामन मेंसर झुका के हम रोते रहेरोते रहेतेरी भी आँखो मेंआंसुओ की नमी तो नहीं... आंधी की तरह उड़ कर इक राह गुजरती है , शर्माती हुयी कोई कदमो से उतरती है , इन रेशमी राहों में इक राह तो वो होगीतुम तक जो पहुँचती है इस मोड़ से जाती हैइस मोड़ से जाते हैं


 








मुजफ्फर वारसी साहब के एक शेर से याद आया....
ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ,
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना भी नहीं

गुलज़ार साहब ने हमेशा दर्द भरे दिल की आवाज़ को शब्दों के रूप में परोसा है.. उनकी कलम से जन्मे शब्द एक किरदार बनकर उभरे हैं..गुलज़ार उर्फ़ सम्पूर्ण सिंह कालरा का जन्म 18 अगस्त 1936 में विधमान पाकिस्तान के जिला झेलम के दीना में हुआ था। गुलज़ार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं। जब गुलजार साहब छोटे थे तभी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था। विभाजन के बाद गुलज़ार का परिवार अमृतसर में आकर बस गया। बाद में गुलज़ार साहब मुंबई चले आए।  मुंबई आकर उन्होंने मैकेनिक का काम भी किया । अपने शौक को ज़ारी रखते हुए गुलज़ार साहब  कवितायें लिखने लगे।  इसी बीच वह हिंदी सिनेमा के मशहूर निर्देशक बिमल रायहृषिकेश मुख़र्जी और हेमंत कुमार के सहायक के रूप में काम करने लगे। 

 सिख परिवार से होने के कारण गुलज़ार के लेखन में रूहानियत व सूफियाना झलकता है. गुलज़ार की शादी तलाकशुदा अभिनेत्री राखी गुलजार से हुई हैं। राखी की पहली शादी फिल्म निर्देशक अजय बिश्वास से हुई थी, दो साल में ही उनका तलाक हो गया  गुलज़ार व राखी का विवाह भी काफी सफल नहीं रहा बेटी मेघना उर्फ़ बोस्की के जन्म के बाद ही यह दोनों अलग हो गए.

  लेकिन गुलजार साहब और राखी ने कभी भी एक-दूसरे से तलाक नहीं लिया।  राखी अब भी ‘राखी गुलज़ार’ के नाम से जानी जाती है  ऐसा भी नहीं है कि गुलज़ार इस रिश्ते के टूटने से आहत नहीं हैं। उनकी रचनाओं से उनके भीतर का दर्द अब भी छलकता हुआ दिखाई देता है

      










हाँवहीं वो अजीब-सा शायर.. रात को उठ के कोहनियों के बल..चाँद की ठोड़ी चूमा करता था..चाँद से गिरके मर गया है वो.. लोग कहते हैं खुदकुशी की है.. 

विगत 13 सितम्बर को जब मैं यह लेख लिख रहा था , तब सोच रहा था की ऐसे ज़ज्बातों के लेखक जन्मजात पैदा होते हैं यां फिर उन्हें हालात ही शब्दों के जादूगर बना देते हैं यह बात मैंने उसी दिन अपनी भुआ नीरा भसीन से सांझा भी की थी, वो इस बात की गवाह हैं  निश्चित ही गुलज़ार साहब एक सदी की मिसाल है। दुनिया उनके शब्दों की कायल है लेकिन ऐसा लगता है कोई तो होगा उनकी जिंदगी में जिसे उनके लिखने पर ख़ुशी नहीं होती होगी.. शायद ज़ज्बाती लेखकों के साथ ऐसा ही होता होगा ..










                   
 लिखने की कोशिश तो हम भी करते हैं
 सुनकर , खफा होते होंगे परिंदे भी
 गौर भले ही ना फरमाए ज़माना
 मेरे ज़ज्बात पढ़कर सब रोयेंगे एक दिन.. ( विशाल )   
   




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