मोहब्बत जिसे बक्श दे जिंदगानी, नहीं मौत पर ख़त्म उसकी कहानी


मोहब्बत जिसे बक्श दे जिंदगानी

नहीं मौत पर ख़त्म उसकी कहानी




बात शुरू करने से पहले कहूंगा " हैप्पी बर्थ डे टू मी ".. वैसे तो वर्ष 2016 भी व हाल ही में दस मार्च को मैंने अपना जन्मदिन मनाया , लेकिन वर्ष 2016 के बाद से 18 मार्च को फिर से " हैप्पी बर्थ डे टू मी " सुनने व कहने का मन करता है. 


दुर्घटना से बचकर सुरक्षित निकलने पर हर इंसान की शायद फिर से जन्म होने की प्रतिक्रया होती है. कुछ मेरे साथ भी ऐसा ही रहा होगा. अब तो यह घटना पुरानी होती जा रही है लेकिन 18 मार्च 2016 को यदा-कदा भुलाने का प्रयास रहता है.
घटना के उपरान्त  रामधारी सिंह "दिनकर" जी की कविता के अंतिम अंश स्मरित हो उठे.. 
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।

थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।


शुक्रवार का दिन था. माताजी-पिताजी को जलगाँव से धुलिया जिले के शिरपुर में घर पर छोड़ने गया था. पता नहीं क्यों उस दिन पूजनीय पापाजी को बहुत व्याकुल सा महसूस कर रहा था. खाना खाकर गाडी ड्राइविंग की थकान उतारने के लिए थोड़ा सा लेटा ही था कि मुझे जगा कर पापाजी ने जल्दी वापिस लौटने के लिए कहा. चाय नाश्ता करते समय भी वह बार बार कहे जा रहे थे कि जल्दी दी - दिन के समय में घर निकल जाओ. जैसे तैसे अकेला सीट बैल्ट बांधकर जलगाँव के लिए निकल पड़ा. अगले दिन कही लम्बे टूर पर जाने का मन था इसलिए रास्ते में ही मैंने गैस इंधन व पेट्रोल टेंक पूरा भरवा लिया.

शाम धीरे धीरे ढल रही थी, कार में मैं अकेला सीट बैल्ट लगाए हुए मधुर गजलों के साथ अपने गंतव्य की ओर चला जा रहा था. जलगाँव पहुँचने के लिए अभी शायद 25 - 26 किमी का सफ़र बाकी था. रास्ते में पड़ने वाले विदगाँव के निकट घुमावदार एक पट्टी मार्ग पर सामान्य गति से सफ़र जारी था. अचानक एक अंधे मोड़ पर सफ़ेद रंग की कार तेज़ी से सामने आ गई, जिससे बचने और बचाने के लिए मुझे अपनी कार कच्चे रास्ते पर उतारनी पड़ी. नीचे ढलान थी. वाहन की गति, तेज़ी से बदले घटनाक्रम के कारण मेरी कार वापिस रास्ते पर न आ सकी. फिर क्या था खुद बचने की जद्दोजहद के बीच वाहन से नियंत्रण छुटा और सामने एक बड़े नीम के पेड़ के साथ तेज़ आवाज़ के बीच कार जोर से टकरा गई. नीम के पेड़ के पास ही ढलान पर लगभग 6-7 फीट गहराई समझ आ रही थी.

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो गया? बस इतना महसूस हो रहा था कि कार की बहुत कर्कश आवाज़ आ रही है. सामने का शीशा टूटकर मेरे ऊपर या आसपास गिरा पडा हुआ है. मेरी सीट शायद स्टेरिंग से बहुत दूर पीछे खिसक चुकी है. जब तक कुछ समझता तब तक कार के इंजन का भयानक शोर और अधिक डराने का प्रयास कर रहा था.अचानक दिमाग ने सब समझ लिया की दुर्घटना हो चुकी है. यदि जल्दी कुछ नहीं किया तो इंजन फट जाएगा !  दिमाग में क्रोंध रहा था कि वाहन में पेट्रोल व गैस दोनों फुल भरे हुए हैं. यदि कुछ ब्लास्ट हुआ तो कुछ भी न बचेगा.. यूँ कह सकते है मैं कि मौत के साथ आँख मिचोली का आनद उठा रहा था. इस वक्त सिर्फ सामने के हालत काबू करने के अलावा कुछ और नहीं सूझ रहा था. तब तक मैंने अपनी चोटों के बारे में सोचा भी नहीं था. जैसे तैसे सीट बैल्ट से खुद को अलग करते हुए इंजन बंद करने के लिए आगे बढ़ने की कोशिश की. अब समझ आया कि अगर मैं ज्यादा हिला डुला तो शायद कार मेरी सीट की विपरीत दिशा में पलट जायेगी. क्योंकि कार नीचे ढलान की तरफ झूल रही थी. रोड सुनसान था, आने जाने वाले भी इक्का-दुक्का थे. कार सड़क से नीचे गिरे होने के कारण किसी के ध्यान में भी नहीं आ रही थी. हिम्मत करते हुए आखिर मैंने इंजन बंद करने में सफलता प्राप्त कर ली थी.






अब अगले चरण में खुद को बाहर निकालने के बारे में सोचना शुरू किया. कार की पिछली सीट के पास फसे होने के कारण दोनों खिड़कियाँ पहुँच से बाहर थीं. खुद हिलकर प्रयास करना यानि नया जोखिम खडा करना था. दरवाजे लॉक हो चुके थे. खोलने का प्रयास व्यर्थ जा रहा था. किसी तरह से पिछली खिड़की का कांच थोड़ा सा नीचे कर पाया. अब मेरी आवाज़ बाहर जा सकती थी. लगातार चिल्लाना व्यर्थ जा रहा था. कार व अन्य वाहन कुछ देरी के बाद तेज़ी से निकल रहे थे. शायद अँधेरे में मेरी आवाज़ गुम हो रही थी. हताश हो कर मेरी सुध बुध ख़त्म हो रही थी.

लगभग 15 मिनट बाद वहां से गुजरते हुए एक मोटरसाइकिल चालक को मेरा चिल्लाना सुनाई पडा. मार्ग पर आगे निकलने के बाद लौट कर अपनी मोटर साइकिल कि रौशनी से सारा माजरा भांपा. और वह भलमानस मुझे ढाढस बंधाने लगा. वह लगातार मराठी में कहे जा रहा था कि घबराओ मत, शांत आराम से बैठे रहो.. मैं हूँ आपके साथ.. आपको कुछ नहीं होगा... इसके साथ ही वह रास्ते पर मदद के लिए जोर जोर से चिल्लाता जा रहा था. कुछ पलों में ही वहा पर दोनों तरफ से आने जाने वाले बहुत से वाहन रुक गए और उस भलमानस सहित बहुत से लोग मेरी कार तक पहुच गए. मैंने उन्हें बताया कि कार दूसरी तरफ झूल रही है और शायद गड्ढे में गिर सकती है. जिसके आधार पर लोगों ने कार को एक तरफ से पकड़ कर जैसे तैसे लॉक हो चुके पिछले दरवाजे को खोलने में सफलता पाई. अब तक मैं सुखरूप कार से बाहर निकल कर चलकर सड़क तक पहुँच चुका था. दुर्घटना का फोबिया सर पर चढ़ा हुआ था लेकिन हिम्मत व चेतना साथ थी. लोग मुझे जांच रहे थे कि कहाँ कहाँ चोट लगी है. मुझे सुरक्षित बाहर आने की अधिक ख़ुशी थी. अँधेरे में वाहनों के प्रकाश से बहुत कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया . मैंने पीने के लिए पानी माँगा. शायद इंदौर की और जा रहे एक परिवार ने अपनी कार में से बिकुल ठंडा पानी मुझे दिया. पानी का एक घूंट पीते ही मुहं में तेज़ाब जैसा अनुभव हुआ और मैं जोर से चीख पडा. तब लोगों ने बताया कि मुहं के अन्दर खून भरा पड़ा है. मैंने तुरंत हिम्मत करके और पानी पीते हुए सारा खून गटक लिया. दिमाग कह रहा था कि यदि खून देख लिया तो अवचेतना आ जाएगी. हिमत करके मैंने किसी को कार से अपने मोबइल खोजने के लिए कहा, जो मुझे तुरंत मिल गए. लोग तब तक जान चुके थे कि मैं दैनिक भास्कर से जुडा हूँ और समाज में कुछ प्रभाव रखता हूँ.





जैसे - तैसे मैंने पहला फोन अपने सहयोगी प्रवीन गायकवाड  व दुसरा फोन मेरे परम स्नेही नमित अग्रवाल को किया और घटना की जानकारी कम शब्दों में दी. प्रवीन ने बहुत सारे करीबी दोस्तों को मेसेज कर दिया था. प्रवीन व लगभग सभी घटना स्थल की ओर निकलने लग गए थे. फोन की घंटी लगातार बजने लगी थी, अब तक घर पर घटना को न बताने का मेरा निर्देश पालन हो रहा था.

वहीँ दूसरी ओर लोग जलगाँव जाने वाले किसी वाहन में मुझे भेजने का प्रबंध कर रहे थे. वहाँ खड़े अधिकतम चार पहिया वाहन विपरीत दिशा की और चोपड़ा शहर यां आगे जा रहे थे. अवचेतना पर मात करते हुए खुद को चेतन रखने का मेरा निरंतर प्रयास जारी था. इस बीच एक सफ़ेद पुरानी मारुती वैन आई. उसमें लगभग पचास - पचपन आयू के 'सिन्धी' पती - पत्नी अकेले थे और वह जलगाँव ही जा रहे थे. लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि मुझे जलगाँव छोड़ दिया जाए. रास्ते में ही मुझे लेने निकले लोग मिल जायेंगे. लोगों ने मेरा परिचय भी दिया, मैं चलने - उठने- बैठने में समर्थ हूँ , यह भी बताया...  पहले तो उस दंपत्ति ने अलग अलग किस्म के बहाने बनाए. मैंने खुद उनसे हाँथ जोड़कर विनय की. शायद वह कानूनी पचेडों यां नई मुसीबत मोल लेने से बचना चाह रहे थे. आखिर में मोटे से उस पुराने किस्म के सज्जन ने बड़ी संजीदगी के साथ स्पष्ट शब्दों में कहा कि " मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता.. "  इतना सुनते ही मैंने हाँथ जोड़कर उनका धन्यवाद किया.  स्थिती की नजाकत्ता देखकर वहां मौजूद लोग खौल गए, इससे पहले की सब झगडे पर उतारू होते मैंने ही उन्हें जल्दी वहां से निकलने का अनुरोध कर लोगों को रोका. 

इस बीच भीड़ में से विपरीत दिशा की ओर जा रहे एक सज्जन ने खुद आगे बढ़ कर मुझे लेकर वापिस जलगांव जाने की बात कही. शायद उनकी नई वैगनार गाडी थी. तुरंत मुझे कार की अगली सीट पर बैठाकर वह सज्जन ( संतोष पाटिल )  जलगाँव रवाना हो गए. तब तक जलगाँव से आने वाले साथियों को वही रुकने का निर्देश दे दिया गया. जल्दबाजी में घटित हुए इस घटनाक्रम में मैं घटनास्थल पर सहायता के लिए उमड़े देवदूतों का आभार भी व्यक्त न कर सका था. ( मैं आज भी उस घटना के सभी साक्षी लोगों का प्रतिवर्ष ह्रदय से आभार अवश्य व्यक्त करता हूँ ). मैं उन सिन्धी  दंपत्ति का भी आभार व्यक्त करता हूँ , उनकी कोई सोच यां मज़बूरी रही होगी लेकिन उनके इनकार के चलते मुझे संतोष पाटिल जैसे अच्छे मित्र मिले . मैंने घटना के अगले वर्ष 18 मार्च 2017 को नई दिल्ली से ठीक दुर्घटना के समय पर ही संतोष जी को फोन करके आभार जताया था. तब वह भावुक हो कर कहने लगे कि आपको अब तक याद है. 
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं

तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं …. फ़िराक़ गोरखपुरी

चोटों के दर्द व खून से भरे मुहं को दिमाग पर हावी न होने देने का निर्णय लेते हुए " देवदूत सज्जन " से बात प्रारंभ की. हालांकि उन्होंने बोलने के लिए मना किया. संतोष पाटिल  नाम बताया उन्होंने. यावल - किनगांव के आसपास उनकी केले की खेती थी. वो मुझे भरोसा दिला रहे थे कि उपचार के बाद अपने ही वाहन में वह मुझे घर तक छोड़ेंगे. बहुत जल्दी ही सफ़र कट गया. हम जलगाँव पहुँच चुके थे. प्रवीन, नमित , राजू जुम्नाके, नितिन सोनवने, आनंद , गिरीश ,निखिल और याद नहीं कौन कौन लेकिन बहुत सारे लोग थे वहां !! 

संतोष पाटिल जी की कार से उतारकर सभी दोस्तों ने दूसरी कार में शिफ्ट किया. मेरे बहुत आग्रह के बाद किसी तरह संतोष पाटिल मुझे छोड़कर अपने घर जाने के लिए तैयार हुए. अस्पताल की सारी प्रक्रिया के बाद मेरी जिद्द पर रात को ही घर ले जाया गया.देर रात लगभग 11 - १२२ बजे के बीच संतोष पाटिल जी ने फिर से फोन करके मेरा हाल जाना. 

उस दिन प्रिय सहयोगी प्रवीन का जन्मदिन था. मैंने अपने कार्यालय में एक परम्परा प्रारंभ की थी कि किसी भी सहयोगी का जन्मदिन अनूठे ढंग से मनाया जायेगा. प्रवीन व सभी केक काटने के लिए मेरी उपस्थिति की ही राह देख रहे थे. इस बीच यह घटना हो गई. सभी गुमसुम अवस्था में घर आये. इतने सारे लोगों को देखकर मेरी पत्नी मोनिका कुछ समझ नहीं पाई और न ही उसका मेरी और ध्यान गया. प्रवीन का जन्मदिन होने के कारण मोनिका ने उसे बधाई दी और कहा कि आज तो आपका जन्मदिन है और आप इतने उदास- गुमसुम क्यों हो? प्रवीन बच्चों की तरह फूट - फूट कर रोने लगा. मेरी तरफ इशारा करते हुए बोला... 'सर' का फिर से जन्म  हुआ है.... 

बस यहाँ इतना ही.. वह भी एक दौर था अदृश्य प्यार , अपनत्व की शक्तियों से बुरा होने से बच गया... गुलज़ार साहब की लिखी पंक्तियाँ जिसे राहुल देव वर्मन साहब ने अपने संगीत से सजाया और मेरे पडोसी खंडवा वाले किशोर कुमार साहब ने अपने खनकते स्वर में गाया... सबका शुक्रिया करते हुए उसे गुनगुनाते हुए आगे बढ़ते रहो..


आनेवाला पल, जाने वाला है
हो सके तो इस में जिन्दगी बिता दो

पल जो ये जानेवाला है..

एक बार यूँ मिली, मासूम सी कली
खिलते हुए कहाँ, खुशबाश मैं चली

देखा तो यही है, ढूंढा तो नहीं है

पल जो ये जानेवाला है..

एक बार वक्त से, लम्हा गिरा कही
वहा दास्ताँ मिली, लम्हा कही नहीं

थोडासा हँसा के, थोडासा रुला के

पल ये भी जानेवाला है..










                                                     विशाल चड्ढा 

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