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जिस्म का सौदा नहीं करते बाबू

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बीते दिनों दिल्ली की एक शाम, शायद जीवन में पहली बार किसी डांस बार में जाने का मौका मिला. जलगाँव से आये  एक करीबी मित्र के आग्रह पर उसे कंपनी देने के बहाने डांस बार की शाम को करीब से देखने का एक अनुभव भी बड़ा दिलचस्प रहा. प्रतीकात्मक फोटो - गूगल साभार   तेज कान फोडू संगीत के सुरताल या थाप पर कमसिन मादक अदाओं पर थिरकती युवतियां और उन पर न्योछावर होते  50, 100, 500 और 2000  के नोट,  फिल्मी अंदाज में निगाहों और उंगली के इशारों से पकड़ बनाए हुए एक सरगना सी मुखिया, पास ही खड़े चार-पांच काली टी-शर्ट पहने मुस्टंडे से लोग जिन्हें आज की भाषा में बाउंसर कहा करते हैं .  तनाव दबाव में संगीत के जादू के साथ मदहोश कर देने वाला वातावरण कहीं ना कहीं यह सब मिश्रित सा वक्त कारोबार, मनोरंजन, नशे, तनहाई दूर करने आदि की कहानी कह रहा है . दिलचस्प इसलिए नहीं की वहां के मादक वातावरण में थिरकते यौवन को देखने का अवसर मिल रहा था, बल्कि इस खुबसूरत व्यव्स्थापन को अपनी नज़र से संजीदगी के साथ महसूस करने का प्रयास कर रहा था कि मेनेजमेंट, कौशल्य विकास की बड़ी बड़ी पाठशाला यां पाठ्यक्रम भी इतनी तेज़ी से रूपए का कीर्तिमान हासि

येवती गांव में मनाई जाती है दिवाली-भाई दूज एक साथ

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जलगाँव – ( विपुल पंजाबी ) पूरे देश में दिपावली व भाईदूज का पर्व समाप्त होने के बाद जलगाँव जिले के बोदवड तहसील के येवती गांव में दीपावली व भाईदूज पर्व मनाया जाता है । आज शुक्रवार 1 नवम्बर को येवाती  गाँव में दिवाली के साथ भाई दूज पर्व मनाया जा रहा है। दिवाली के बाद आनेवाली पंचमी को येवती गांव के लोग दिवाली व भाईदूज एकसाथ मनाते है। बोदवड तहसील के इस येवती गांव में दीपावली के अवसर पर त्यौहार न मनाते हुए बाद में दीपावली व भाईदूज एकसाथ मनाए जाने की लगभग ४०० साल पुरानी परंपरा है। इन्ही परंपराओं के अंतर्गत पुरे देश में भाईदूज मनाई जाती है, तब बोदवड का येवती गांव त्यौहार से दूर रहता है । येवती गांव में इन परंपराओं का निर्वाह करते हुए अंबऋषी के मंदिर को आस्था का केंद्र रखा जाता है। महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि भारत वर्ष में ऐसी परंपराओं का निर्वाह करने वाला यह एक मात्र मंदिर है । येवती गांव में इन परंपराओं का निर्वाह करते हुये विगत भाईदूज नहीं मनाई गई । पौराणिक कथाओं के आधार पर बोदवड तहसील के येवती गांव में प्राचीन काल के अंब ऋषि द्वारा स्थापित की गयी दीपावली को ही महत्व दिया जाता है। ऐसी मा

स्कूल का पहला दिन

स्कूल का पहला दिन उत्साह व कल्पनाओं के साथ आँखों में लिए हज़ार सप्तरंगी सपने नन्हे अठखेलियां करते हाँथ, माता पिता के साथ स्कूल चले हम के संगीत में वहीँ कुछ उदास से चेहरे नम आँखों से देखते अपनो को चिड़ियों के कलरव सा शोर कोई हँसता कोई होता भावविभोर प्रयास एक अध्यापक का सपने दिखा दिखा कर हंसते खेलते चेहरे में उदास को भी मिलाकर वहीँ मायूस से माँ बाप चारदीवारी के बाहर हिला रहे हाँथ ,कर रहे  मुस्कुराने का प्रयास रंग बिरंगे गुब्बारों को दिखा कर जता रहे जल्द लौटने का विश्वास स्कूल का पहला दिन रस्सी पर चलने जैसी कसरत मुझे अब भी याद आता है स्कूल ख़त्म होते ही मिल्खा सिंह की तरह  भाग कर दौड़ना सबसे पहले चारदीवारी से निकल अपनों में सिमट जाना बड़ा अच्छा था वो सबक न भूला हूँ न भूलूंगा कभी उस पहले दिन के उत्साह ने मुझे इंसान बना दिया।।

देखो भईया ! होरी आ गई, अब ना कहिओ पानी नाय है !!

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#  बुरा न मानो होली  है...  यह सिर्फ होली का व्यंग्य प्रस्तुत करने का प्रयास है. इसे सिर्फ होली की भीगी भीगी खुशियों , रस भरी गुजिया के साथ उपयोग करें .  किसी भी किरदार की उपेक्षा करना, उपहास उड़ाना यां मखौल उड़ाने कि कतई मंशा नहीं है. किसी भी जाति , समाज , धर्म को मात्र वस्तुस्थिति के आधार पर सम्मान के साथ उलेखित किया है. इन सबको नीचा दिखाने यां जानबूझकर घसीटने का कोई प्रयास नहीं है .    समर्पित व्यक्ति, भक्त यां अंध भक्त बिलकुल न पढ़ें. पढने के बाद शारीरिक उत्तेजना - अवचेतना के बदलाव होली के अवकाश पर छुट्टी पर गए डाक्टर के लिए भी रंग में भंग डाल सकते हैं. बुंदेलखंड की स्वस्थ हास्य-व्यंग्य की परम्परा का आनंद लें.. और हाँ ! नर -मादा, तेल लगाना, सिरप, कुशी, चातिसघर को क्रमशः नर्मदा, तेलंगाना, सिर्फ, ख़ुशी एवं छत्तीसगढ़ ही पढ़ें.. बुरा न मानो होली  है.. लेयो इते अबहे जाडा खतम नई भया.. और होरी आ गई .. कोन्हू फिलम में नाना पाटेकर कहत हते " आ गए मेरी मौत का तमासा देखने " ऐसइ कछु ' चमन चूतिये' आ गए  लड़का बच्चान के सिखान के लाने .. पानी न खराब करियो.. सूखे रंगन से होरी खेलि

मोहब्बत जिसे बक्श दे जिंदगानी, नहीं मौत पर ख़त्म उसकी कहानी

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मोहब्बत जिसे बक्श दे जिंदगानी नहीं मौत पर ख़त्म उसकी कहानी बात शुरू करने से पहले कहूंगा " हैप्पी बर्थ डे टू मी ".. वैसे तो वर्ष 2016 भी व हाल ही में दस मार्च को मैंने अपना जन्मदिन मनाया , लेकिन वर्ष 2016 के बाद से 18 मार्च को  फिर से  " हैप्पी बर्थ डे टू मी " सुनने व कहने का मन करता है.  दुर्घटना से बचकर सुरक्षित निकलने पर हर इंसान की शायद फिर से जन्म होने की प्रतिक्रया होती है. कुछ मेरे साथ भी ऐसा ही रहा होगा. अब तो यह घटना पुरानी होती जा रही है लेकिन 18 मार्च 2016 को यदा-कदा भुलाने का प्रयास रहता है. घटना के उपरान्त   रामधारी सिंह "दिनकर" जी की कविता के अंतिम अंश स्मरित हो उठे..  और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है। थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। शुक्रवार का दिन था. माताजी-पिताजी को जलगाँव से धुलिया जिले के शिरपुर में घर पर छोड़ने गया था. पता नहीं क्यों उस दिन पूजनीय पापाजी को बहुत व्याकुल सा महसूस कर रहा था. खाना खाकर गाडी ड्राइविंग की थकान उतारने के लिए थोड़ा सा लेटा ही था कि मुझे जगा कर पापाजी ने ज

चालीसगांव में पड़ी विश्व कला की धरोहर - " केकी मूस "

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भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु बाबूजी से मिलने दो बार चालीसगांव आये थे.  बताते है कि 48 साल तक केकी मुस उर्फ़ बाबूजी ने चालीसगांव से बाहर सिर्फ दो बार कदम रखा.  एक बार मां की मृत्यु पर उन्हें औरंगाबाद जाना पड़ा. दूसरी बार जब वे अपने बंगले से निकलकर चालीसगांव रेलवे स्टेशन पर विनोबा भावे की तस्वीर लेने आये. मां ने पहचानी प्रतिभा -   चालीसगांव में केकी मूस के पिता सोडा वाटर की फैक्टरी के साथ-साथ शराब की दुकान चलाते थे. बेटा कला की पढ़ाई करने विदेश जाना चाहता था. पर मां-बाप इकलौते बेटे को इतनी दूर भेजने के लिए तैयार नहीं थे. वर्ष 1934-35 में पिता की मौत के बाद मां पिरोजाबाई ने फैक्टरी की जिम्मेदारी अपने कंधे लेते हुए बेटे को इंग्लैण्ड जाने की इजाजत दे दी.  चालीसगांव में अब केकी मूस उर्फ़ बाबूजी के नाम पर उनके कुछ साधकों द्वारा केकी मूस आर्ट ट्रस्ट चलाया जा रहा है.  ट्रस्ट के सचिव  कमलाकर सामंत ने बताया कि बाबू जी ने 300  से अधिक  राष्ट्रीय,  अंतर्राष्ट्रीय  पुरस्कार जीते थे . लेकिन  उनके जीते जी यह बात किसी को नहीं पता थी. बाबूजी की इतनी सादगी थी कि  अपने ना

हे भगवान् आज फिर रावण जला दिया जायेगा !!

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देश के विभिन्न इलाकों में गुरूवार 18 अक्टूबर को विजयादशमी पर्व मनाया गया, जबकि उत्तर भारत सहित कई हिस्सों में आज 19 अक्टूबर को विजयादशमी पर्व मनाया जा रहा है.  हे भगवान् आज फिर रावण जला दिया जायेगा !! बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतिक के रूप में. बिना किसी आत्म्परिवर्तन के हम स्वयं ही आंकलन कर लेंगे की हम खुद बहुत अच्छे हैं और समाज की सारी अच्छाईयां हमारे घर में पानी भरती हैं. रावण सदियों से बुरा था, बुरा ही रहेगा. हम सभी कुरीतियों से परे साफ़ सुलझे आदर्शवादी इंसान हैं, हमें पुरा अधिकार है रावण पर रौष प्रकट करने का . हमें अधिकार है रावण को जलाने का.. खैर होना भी चाहिए.. दीपक तले अँधेरे को कौन देखता है. तम्बाकू हानिकारक है भला इस चेतावनी को कौन पढता है. अब सवाल यह उठता है की रावण में ऐसा क्या था जो आज हमारे समाज में मोजूद नहीं है, फिर अकेला उसे ही जलाने की जिद्द क्यों ?? आधा गिलास भरा को सकारात्मकता व आधा गिलास खाली को नकारात्मक के चश्मे से देख कर भी हम रावण की नकारात्मकता देखना ही पसंद करेंगे. विधान ही ऐसा बना दिया गया है .  बरहाल रावण जलाने की पुरातन परम्पराओं का नि