जिस्म का सौदा नहीं करते बाबू


बीते दिनों दिल्ली की एक शाम, शायद जीवन में पहली बार किसी डांस बार में जाने का मौका मिला. जलगाँव से आये  एक करीबी मित्र के आग्रह पर उसे कंपनी देने के बहाने डांस बार की शाम को करीब से देखने का एक अनुभव भी बड़ा दिलचस्प रहा.

प्रतीकात्मक फोटो - गूगल साभार

 तेज कान फोडू संगीत के सुरताल या थाप पर कमसिन मादक अदाओं पर थिरकती युवतियां और उन पर न्योछावर होते  50, 100, 500 और 2000  के नोट,  फिल्मी अंदाज में निगाहों और उंगली के इशारों से पकड़ बनाए हुए एक सरगना सी मुखिया, पास ही खड़े चार-पांच काली टी-शर्ट पहने मुस्टंडे से लोग जिन्हें आज की भाषा में बाउंसर कहा करते हैं .  तनाव दबाव में संगीत के जादू के साथ मदहोश कर देने वाला वातावरण कहीं ना कहीं यह सब मिश्रित सा वक्त कारोबार, मनोरंजन, नशे, तनहाई दूर करने आदि की कहानी कह रहा है .

दिलचस्प इसलिए नहीं की वहां के मादक वातावरण में थिरकते यौवन को देखने का अवसर मिल रहा था, बल्कि इस खुबसूरत व्यव्स्थापन को अपनी नज़र से संजीदगी के साथ महसूस करने का प्रयास कर रहा था कि मेनेजमेंट, कौशल्य विकास की बड़ी बड़ी पाठशाला यां पाठ्यक्रम भी इतनी तेज़ी से रूपए का कीर्तिमान हासिल करने का नुस्खा नहीं बता पाते होंगे.

खैर जो डांस फ्लोर पर चल रहा था वह मेरे मित्र के लिए कुछ नया नहीं था, लेकिन अपना तो बुरा हाल हो रहा था. रुक रुक कर भीतर दबा बैठा पत्रकार जाग रहा था, लेकिन उन मुस्टंडे बाउंसरों की चील जैसी नजरों से मोबाइल उठाने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. डांस बार में बैठे आदर्शवादी, ( मुझे भी गिना जा सकता है ) मुद्रा का मूल्यांकन शेयर बाज़ार के सूचकांक से भी अधिक तेज़ी से नीचे गिरा रहे थे. ( हालांकि मेरा तो मानो ही मत, मेरे मित्र ने भी एक रुपया न्योछावर नहीं क्या )

अलग अलग गीत पर मादक अदाएं परोसती बार बालाएं बरसात के मौसम में फार्मा सेक्टर के बढ़ते शेयर की तरह उच्चांक प्रस्तुत कर रही थीं. वहीं कुछ मादक अदाएं कमजोर बिकवाली के चलते दम तोडती नज़र आ रही थीं. कुल मिलाकर जो माहोल तैयार किया जा रहा था वह शराबी फिल्म के अमिताभ व जयाप्रदा के इर्द-गिर्द आकर ख़त्म हो रहा था. यां यूँ कह सकते हैं कि उस शाम डांस बार में बैठे हर शख्स को नौ लखा देने का सुनहरा अवसर मिल रहा था. गिलास में पड़े रंगीन पानी की चुस्कियों से सूखे गले को तर कर रहे बेचारे प्यासे अब भूलोक से निकल कर इंद्र के सिंहासन तक पहुंचना शुरू हो गए थे. इसके लिए बाकायदा नोटों की बरसात अप्सराओं को मुग्ध करते हुए सेतु निर्माण कर रही थी. नोटबंदी अब तक बहुत ज्यादा पुरानी नहीं हुई थी, लेकिन यहाँ के अंदाज़ से नहीं लग रहा था कि कहीं कोई नोट बंदी का भी असर है.  मादक अदाएं परोसती बार बालाओं के आसामी  मुर्गा देखकर टेबल के इर्द गिर्द चक्कर लगाना, अपनी मुखिया के इशारों का अनुसरण करते हुए दो टेबलों के बीच स्पर्धा निर्माण कराना ताकि नोटों की बारिश हो सके, धीरे धीरे संगीत व जिस्मानी नुमाइश अपने परवान चढ़ रही थी.

प्रतीकात्मक फोटो - गूगल से साभार

यह सारा नज़ारा पहाडगंज के भीड़भाड वाले इलाके में  स्थित एक बारनुमा हरी - हरियाली की थीम से सजे  मैखाने का था. समझ में नहीं आ रहा था कि संगीत का मजा लूँ यां फिर रोजी रोटी के लिए जुटाए जा रहे सामान के इन तरीकों का विश्लेषण करूँ . ठहर - ठहर दिल में डर का आभास भी हो रहा था कि कहीं मामला क़ानूनी न हो जाए और बैठे बिठाए अब तक समाज की बिसात पर बिछाई अपनी इस इज्ज़त का पंचनामा न हो जाये. इसी डर से जूझते हुए न जाने कितनी बार अपने मित्र को झकझोर कर उनकी आँखों में खुमारी ले रही मद और मादकता की मदहोश निद्रा को तोड़ने का प्रयास भी किया. लेकिन जनाब के सोमरस प्याले खाली होने से पहले भर रहे थे. मजबूरन कहो यां अपने किये की सजा पाते हम भी लगभग एक - डेढ़ लीटर रासायनिक जल रसूखदार लोगों की भाषा में कोल्डड्रिंक अपने उदर में उड़ेल चुके थे.

हिम्मत करके हमने अपने पत्रकार जज्बे को सामने लाने का प्रयास प्रारम्भ किया. और मौका देखकर कुछ समय के लिए इस संगीत और मादक अदाओं के मंच से सिगरेट का धुआं उड़ाने कोने में गई कथित मालकिन के पास बहाने से पहुँच गया. बातों का  रहस्मयी दौर शुरू करते हुए पहले तो उस  सरगना सी मुखिया का विश्वास जीतना प्रारंभ किया. प्रारंभ में तो मैं रोजाना के अनुभवों की तरह सरगना मालकिन को कोई जिस्म की फरमाइश लेकर आने वाला मनचला सा लगा. लेकिन बात करने के सलीके व कुछ विश्वास दिलाने पर मालकिन सहज हो गई. तब तक कुछ मुस्टंडे मेरा मतलब बाउंसर मुझ तक पूरी तरह से पहुँच चुके थे. शायद उन्हें लग रहा था कि जिस्म का सौदा करने पहुँच गया हूँ मैं. अबतक मुझे यह अंदेशा आ चुका था कि आज पत्रकारिता का जागा भूत निश्चित ही पहाड़गंज की किसी गली में ले जा कर बेजा पिटवाएगा. वो तो शुक्र हो उस समय की दरियादिल मालकिन का , जो उसने मुफ्त के फिजियोथैरापिस्ट की सेवाओं से मुझे बचा दिया.

                                                                              प्रतीकात्मक फोटो -गूगल से साभार

वक्त की नजाकतता के साथ ही संक्षिप्त चर्चा का दौर प्रारंभ हुआ. मुझे सिर्फ अपने सवालों के जवाब में इतना ही अच्छा लगा कि उस सरगना सी मुखिया मालकिन ने बड़े ही आत्मविश्वास व दावे के साथ कहा - हम जिस्म का सौदा नहीं करते बाबू ! जिस्म की नुमाइश से मिलते हैं हमें पैसे !!

उसने यह भी बताया कि जिस पर जितने अधिक पैसे लुटाये जाते हैं उसे अतिरिक्त कमीशन दिया जाता है. धंधे में इमानदारी ही होती है. कभी कभी परफोर्मेंस न पाने वाली बार बाला को भी उसका हक़ दिया जाता है. मनचले ग्राहक तो रोज आते हैं लेकिन उनसे निपटने का सारा प्रबंध रहता है. इन बारबालाओं की मुखिया ने भी माना की बिना बहुत सारे सहयोग के यह खेल संभव नहीं है. शायद उनके हलक से न निकल रहे शब्दों को मैं समझ चुका था कि पुलिस, प्रशासन, नेता-मंडली, आस पास के लोग और शायद पत्रकार भी , कहने का वह साहस नहीं कर पा रहीं थीं.

बातचीत बहुत लम्बी नहीं चल सकी लेकिन सोहार्दपूर्ण बातचीत में हसीन व मादक सी उस मालकिन ने मेरे चेहरे पर एक बार भी सिगरेट का धुआं नहीं छोड़ा. संक्षिप्त परिचय होने के बाद  हम दोनों का खौफ कुछ हद तक जा चुका था, यह अलग बात है कि थोड़ी दूर खड़े  बाउंसर  उनकी मौजूदगी का आभास दिला रहे थे. जैसे तैसे मित्र महोदय को वहां से चलने के आग्रह के साथ निकाला. अब हम उस सुनहरी सप्तरंगी चकाचौंध को पीछे छोड़कर बाहर निकल चुके थे. मैं अब खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा था. शायद अबतक उस मालकिन ने भी मेरे और उसके बीच के संवाद को अपने साथियों के साथ सांझा कर दिया था. क्योंकि होटल के दो कर्मचारियों को हमारे पीछे गेट के बाहर भेज दिया था. हमारे ओझल होने तक यह लोग सड़क पर खड़े होकर हमें देखते रहे. दवाब, तनाव व डर के माहौल से मुक्त होकर मैं अब थोडा हल्का महसूस कर रहा था ,लेकिन अभी भी कान में सिगरेट के गर्म धुएं के साथ निकले सुर गूंज रहे थे -  जिस्म का सौदा नहीं करते बाबू ! जिस्म की नुमाइश से मिलते हैं हमें पैसे !!



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