किताबों में मुरझाए फूल मिले..
किताबों में मुरझाये हुए कुछ फू ल मिले
याद आया जमाना जब थे यह फूल खिले
रोशनी आंखों में चमक सी लगती थी तब
दोपहर की धूप भी ठंडक देती थी तब
दोपहर की धूप भी ठंडक देती थी तब
याद आया बहुत सा गुजरा जमाना
कोने वाली अम्मी का चिडिय़ों को दाना चुगाना
मां का नम आंखों से चूल्हे को फूं क कर जलाना
देगची से उबलती दाल का पानी
यह सब बातें याद दिला रही हैं कहानी
कोने वाली अम्मी का चिडिय़ों को दाना चुगाना
मां का नम आंखों से चूल्हे को फूं क कर जलाना
देगची से उबलती दाल का पानी
यह सब बातें याद दिला रही हैं कहानी
किताबों में मुरझाये हुए कु छ फू ल मिले
भूतकाल की कल्पना लिये मानो भविष्य से मिले
आज वर्षों बाद जवानी की यादों के फूल खिले
किताबों में मुरझाये हुए कुछ फू ल मिले
किताबों में दबे फूल की सुगंध
महका रही है अब भी मन को
वो बेपरवाही, शरारत, उकेर रही अक्खडपन को
पांच-दस पैसे की भी एक औकात होती थी
खनकते सिक्कों के साथ लाखों की बात होती थी
बचपन-जवानी की दहलीज सब याद आ गई
कंचे, गुल्ली डंडा, शतरंज की बिसात याद आ गई
भूतकाल की कल्पना लिये मानो भविष्य से मिले
आज वर्षों बाद जवानी की यादों के फूल खिले
किताबों में मुरझाये हुए कुछ फू ल मिले
किताबों में दबे फूल की सुगंध
महका रही है अब भी मन को
वो बेपरवाही, शरारत, उकेर रही अक्खडपन को
पांच-दस पैसे की भी एक औकात होती थी
खनकते सिक्कों के साथ लाखों की बात होती थी
बचपन-जवानी की दहलीज सब याद आ गई
कंचे, गुल्ली डंडा, शतरंज की बिसात याद आ गई
मुरझाये फूलों ने यादों के रंग भर दिये
शहर के शोर में मिश्री के स्वर घोल दिये
याद आ रहा है वही सब पिछला जमाना
आवले के पेड के नीचे "कक्की" का गकरियां बनाना
ओह ! काश !! यह स्वप्र जारी रहे ऐसा
तब प्यार अपनापन था, आज है सिर्फ पैसा
चकाचौंध समय की व्यस्तता हैरान कर रही हैं
इन्सान को इन्सान से विरान कर रही हैं
शहर के शोर में मिश्री के स्वर घोल दिये
याद आ रहा है वही सब पिछला जमाना
आवले के पेड के नीचे "कक्की" का गकरियां बनाना
ओह ! काश !! यह स्वप्र जारी रहे ऐसा
तब प्यार अपनापन था, आज है सिर्फ पैसा
चकाचौंध समय की व्यस्तता हैरान कर रही हैं
इन्सान को इन्सान से विरान कर रही हैं
काश ! समय चक्र का कोई ऐसा कलपुर्जा होता
जो लौटाता बचपन में, अपनों का साक्षात्कार होता
विनोद, मंगल, बबलु, टिप्पू, रामू हम सब साथ बैठते
फिर पट्टू महाराज की दुकान पर रसगुल्ले उडाते
यह मुरझाये हुए फूल भी ना जाने क्या दास्तां कह गए
कब किताबों में दबाये थें, कब कहानी कह गए
किताबों में दबे फू ल मुरझाये ही रह गए
ताजगी के साथ धुंधली हो चुकी कहानी कह गए..
जो लौटाता बचपन में, अपनों का साक्षात्कार होता
विनोद, मंगल, बबलु, टिप्पू, रामू हम सब साथ बैठते
फिर पट्टू महाराज की दुकान पर रसगुल्ले उडाते
यह मुरझाये हुए फूल भी ना जाने क्या दास्तां कह गए
कब किताबों में दबाये थें, कब कहानी कह गए
किताबों में दबे फू ल मुरझाये ही रह गए
ताजगी के साथ धुंधली हो चुकी कहानी कह गए..
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें