जिंदगी.. जीने का खुबसूरत अंदाज़


जिंदगी..

एक खुबसुरत शब्द से आगाज़ करते हैं अपने लिखने का.. देखने और जीने का अपना अपना नजरिया है.. कुछ पंक्तियाँ उभर रही हैं ज़ेहन में..

                        एक और अहसान कर दे जिंदगी,

                        अब तो शहर भी चरमराने लगे हैं

                        मेरी आहट से,

                        बुत खौफ खाते हैं शायद

                        मेरी रूह से,

                        मैं डरावना नहीं
                        लेकिन

                        अक्स बन गया है कुछ ऐसा ..

शाम की फुर्सत में बैठे हुए कुछ सोच रहा था कि जिसने भी दिया होगा उसे नाम.. बहुत सोच कर कहा होगा..

                                        " जिंदगी "


कुछ असंतोष पैदा करने वाले लोग जब यह कहते हैं की मेरी तो  जिंदगी ख़राब हो गई, क्या बकवास जिंदगी मिली है तब लगता है की इश्वर की इस खुबसूरत कायनात को , शायरों - कवियों की सुन्दर कल्पनाओं से सजी इस अद्भुत विरासत को हम ही थकी-हारी सी बना लेते हैं. खैर जिंदगी शब्द को सदी के लेखकों, शायरों ने बहुत उम्दा तरीके से निखारकर प्रस्तुत किया है. 

फिल्मों में ना जाने  सेकड़ों गीत जिंदगी शब्द के सजदे में सजे पड़े हैं . 

वर्ष १९७० में आई फिल्म सफ़र के गीत को आगे बढ़ाते हुए बात करतें है लफ़्ज़ों की ... महान गीतकार इन्दीवर के इन शब्दों की गहराई ही अलग थी..

 ..जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर...कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं..है ये कैसी डगर, चलते हैं सब मगर..कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं

..जिंदगी को बहुत प्यार हम ने दिया..मौत से भी मोहब्बत निभाएंगे हम..रोते रोते जमाने में आए मगर..हँस्ते हँस्ते जमाने से जायेंगे हम..जायेंगे पर किधर , है किसे ये ख़बर..कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं

..ऐसे जीवन भी हैं जो जिए ही नहीं..जिनको जीने से पहले ही मौत आ गयी..फूल एसे भी हैं जो खिले ही नहीं..जिनको खिलने से पहले खिजा खा गयी.

..है परेशान नजर, थक गए चारागर..कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं..जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर..कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं..
बहुत कुछ लिखा जा चूका है अब तक इस शब्द पर, बहुत सारे गीत बन चुके हैं किन्तु अफ़सोस वो सब सिर्फ गुनगुनाने के लिए ही शेष हैं. 
                 किसे है फुर्सत कि वो दो पल गुज़ार ले चैन से
                 उसने तो खुद ही जिंदगी हराम कर रखी है.. 

चलते चलते इतना ही कहूँगा की जिंदगी को सकारात्मकता के साथ रचनात्मक कार्यों में लगाते हुए खुबसूरत अंदाज़ में जीने की तमन्ना रखनी चाहिए. मैं कोई फिलोस्फर नहीं हूँ जो अनावश्यक ज्ञान बांटे जा रहा हूँ. यह तो बस कुछ कवियों शायरों, लेखकों को पढ़ा और उनके अनुभव सांझा कर दिए अपने शब्दों में.. आखिर में कहीं यह न कहना पड़ जाए..

                    कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे,

                   तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा
वहीँ एक शायर और भी बहुत खूब कह गए हैं..
                   ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ

                   शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना भी नहीं

                                                                            - विशाल 
 




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